हर दिन का ना हो साथ इक रात का
हो तेरा तो क्या कहना उस बात का
बूँद बूँद कर जब गिरे मोहब्बत
किसे फ़िक्र फिर जिस्म की ज़ात का
अन्जान रहे छुंके रूह तक भी
खेले खेल हम बच्चो की भांत का
तपिश नसनस में बस सेहर तलक
दूजे दिन पता ना पात पात का
बीज बोते आसमान को तांकना
सुना यही रंग होगा क़ायनात का
ज़िक्र-ए-इश्क भी क़ाफीरी हैं पागल
क्यों चर्चा उस चीज़ वाहियात का
मिल जाए जो सड़क चलते चलते
ज़िक्र होगा तेरी मेरी औक़ात का
कहते मेरा मसीहा इक दिन आएगा
वही हैं नुक्ता अब मेरी हयात का
हरारत ये अपनों से प्यार करने की हैं
औरोने ठेका ले रक्खा हैं जज़्बात का
2 comments:
lovely...love the bit about qaynaat. very well put. read something so moving after a very long time...
Thank you so much.
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